काफ़िर हूं गर न मिल्ती हो राहत `अज़ाब में
कब से हूं क्या बताऊं जहान-ए ख़राब में
शबहा-ए हिज्र को भी रखूं गर हिसाब में
ता फिर न इन्तिज़ार में नींद आए `उम्र भर
आने का `अह्द कर गए आए जो ख़्वाब में
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूं
मैं जान्ता हूं जो वह लिखेंगे जवाब में
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में
जो मुन्कर-ए वफ़ा हो फ़रेब उस पह क्या चले
क्यूं बद-गुमां हूं दोस्त से दुश्मन के बाब में
मैं मुज़्तरिब हूं वस्ल में ख़ौफ़-ए रक़ीब से
डाला है तुम को वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में
मैं और हज़्ज़-ए वस्ल ख़ुदा-साज़ बात है
जां नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में
है तेवरी चढ़ी हुई अन्दर नक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए नक़ाब में
लाखों लगाओ एक चुराना निगाह का
लाखों बनाओ एक बिगड़्ना `अताब में
वह नालह दिल में ख़स के बराबर जगह न पाए
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़्ताब में
वह सिह्र मुद्द`अ-तलबी में न काम आए
जिस सिह्र से सफ़ीनह रवां हो सराब में
ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूं रोज़-ए अब्र-ओ-शब-ए माह्ताब में
जगजीत सिंह की आवाज़ मे सुने
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