Saturday, August 25, 2007

यह न थी हमारी क़िस्‌मत कि विसाल-ए यार होता

यह न थी हमारी क़िस्‌मत कि विसाल-ए यार होता
अगर और जीते रह्‌ते यिही इन्‌तिज़ार होता

तिरे व`दे पर जिये हम तो यह जान झूट जाना
कि ख़्‌वुशी से मर न जाते अगर इ`तिबार होता

तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था `अह्‌द बोदा
कभी तू न तोड़ सक्‌ता अगर उस्‌तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए नीम-कश को
यह ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता

यह कहां की दोस्‌ती है कि बने हैं दोस्‌त नासिह
कोई चारह-साज़ होता कोई ग़म्‌गुसार होता

रग-ए सन्‌ग से टपक्‌ता वह लहू कि फिर न थम्‌ता
जिसे ग़म समझ रहे हो यह अगर शरार होता

ग़म अगर्‌चिह जां-गुसिल है पह कहां बचें कि दिल है
ग़म-ए `इश्‌क़ अगर न होता ग़म-ए रोज़्‌गार होता

कहूं किस से मैं कि क्‌या है शब-ए ग़म बुरी बला है
मुझे क्‌या बुरा था मर्‌ना अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुस्‌वा हुए क्‌यूं न ग़र्‌क़-ए दर्‌या
न कभी जनाज़ह उठ्‌ता न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सक्‌ता कि यगानह है वह यक्‌ता
जो दूई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता

यह मसाइल-ए तसव्‌वुफ़ यह तिरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझ्‌ते जो न बादह-ख़्‌वार होता

चित्रा सेन की आवाज़ मे सुने

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

2 comments:

उन्मुक्त said...

पहली बार यहां आना हुआ। अच्छा लगा।

Kamal Dubey said...

बहुत खूब! इस ब्लॉग को रचने में लगी आपकी लगन और मेहनत का कायल हो गया हूँ. उर्दू पढ़ना न जानने वाले लेकिन चचा ग़ालिब के चाहने वालों के लिए ये ब्लॉग जन्नत से कम नहीं...