अगर और जीते रह्ते यिही इन्तिज़ार होता
तिरे व`दे पर जिये हम तो यह जान झूट जाना
कि ख़्वुशी से मर न जाते अगर इ`तिबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था `अह्द बोदा
कभी तू न तोड़ सक्ता अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए नीम-कश को
यह ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता
यह कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासिह
कोई चारह-साज़ होता कोई ग़म्गुसार होता
रग-ए सन्ग से टपक्ता वह लहू कि फिर न थम्ता
जिसे ग़म समझ रहे हो यह अगर शरार होता
ग़म अगर्चिह जां-गुसिल है पह कहां बचें कि दिल है
ग़म-ए `इश्क़ अगर न होता ग़म-ए रोज़्गार होता
कहूं किस से मैं कि क्या है शब-ए ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मर्ना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूं न ग़र्क़-ए दर्या
न कभी जनाज़ह उठ्ता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सक्ता कि यगानह है वह यक्ता
जो दूई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
यह मसाइल-ए तसव्वुफ़ यह तिरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझ्ते जो न बादह-ख़्वार होता
चित्रा सेन की आवाज़ मे सुने
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2 comments:
पहली बार यहां आना हुआ। अच्छा लगा।
बहुत खूब! इस ब्लॉग को रचने में लगी आपकी लगन और मेहनत का कायल हो गया हूँ. उर्दू पढ़ना न जानने वाले लेकिन चचा ग़ालिब के चाहने वालों के लिए ये ब्लॉग जन्नत से कम नहीं...
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