Saturday, October 27, 2007

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूं मैं

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूं मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्‌दगी पह कि पत्‌थर नहीं हूं मैं

क्‌यूं गर्‌दिश-ए मुदाम से घब्‌रा न जाए दिल
इन्‌सान हूं पियालह-ओ-साग़र नहीं हूं मैं

या रब ज़मानह मुझ को मिटाता है किस्‌लिये
लौह-ए जहां पह हर्‌फ़-ए मुकर्‌रर नहीं हूं मैं

हद चाहिये सज़ा में `उक़ूबत के वास्‌ते
आख़िर गुनाह्‌गार हूं काफ़र नहीं हूं मैं

किस वास्‌ते `अज़ीज़ नहीं जान्‌ते मुझे
ल`ल-ओ-ज़ुमुर्‌रुद-ओ-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूं मैं

रख्‌ते हो तुम क़दम मिरी आंखों से क्‌यूं दरेग़
रत्‌बे में मिह्‌र-ओ-माह से कम्‌तर नहीं हूं मैं

कर्‌ते हो मुझ को मन`-ए क़दम-बोस किस्‌लिये
क्‌या आस्‌मान के भी बराबर नहीं हूं मैं

ग़ालिब वज़ीफ़ह-ख़्‌वार हो दो शाह को दु`आ
वह दिन गए कि कह्‌ते थे नौकर नहीं हूं मैं

No comments: