फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़
गर्म बाज़ार-ए-फ़ौजदारी है
हो रहा है जहाँ में अँधेर
ज़ुल्फ़ की फिर सरिश्तादारी है
फिर दिया पारा-ए-जिगर ने सवाल
एक फ़रियाद-ओ-आह-ओ-ज़ारी है
फिर हुए हैं गवाह-ए-इश्क़ तलब
अश्क़बारी का हुक्मज़ारी है
दिल-ओ-मिज़श्माँ का जो मुक़दमा था
आज फिर उस की रूबक़ारी है
बेख़ूदी बेसबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दादारी है
अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
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अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
हम लोग जब मिले तो कोई दूसरा भी हो
तू जानता नहीं मेरी चाहत अजीब है
मुझको मना रहा हैं कभी ख़ुद खफ़ा भी हो
तू बेवफ़ा नही...
1 comment:
बहुत खूब। आपने गालिब की रचनाओं को एक जगह संजो कर बहुत अच्छा काम किया है। बहुत बहुत बधाई।
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