Sunday, November 25, 2007

ग़म खाने में बोदा दिल-ए ना-काम बहुत है

ग़म खाने में बोदा दिल-ए ना-काम बहुत है
यह रन्‌ज कि कम है मै-ए गुल्‌फ़ाम बहुत है

कह्‌ते हुए साक़ी से हया आती है वर्‌नह
है यूं कि मुझे दुर्‌द-ए तह-ए जाम बहुत है

ने तीर कमां में है न सैयाद कमीं में
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है

क्‌या ज़ुह्‌द को मानूं कि न हो गर्‌चिह रियाई
पादाश-ए `अमल की तम`-ए ख़ाम बहुत है

हैं अह्‌ल-ए ख़िरद किस रविश-ए ख़ास पह नाज़ां
पा-बस्‌तगी-ए रस्‌म-ओ-रह-ए `आम बहुत है

ज़म्‌ज़म ही पह छोड़ो मुझे क्‌या तौफ़-ए हरम से
आलूदह ब मै जामह-ए अह्‌राम बहुत है

है क़ह्‌र गर अब भी न बने बात कि उन को
इन्‌कार नहीं और मुझे इब्‌राम बहुत है

ख़ूं हो के जिगर आंख से टप्‌का नहीं अय मर्‌ग
रह्‌ने दे मुझे यां कि अभी काम बहुत है

होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शा`इर तो वह अच्‌छा है पह बद्‌नाम बहुत है

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