Tuesday, December 4, 2007

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई

शक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तक्लेएफ़-ए-पर्दादारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिये बस अब के लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मेरी कू-ए-यार में
बारे अब ऐ हवा, हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो दिल फ़रेबि-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई

हर बुलहवस ने हुस्न परस्ती शिआर की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए- नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई

फ़र्दा-ओ-दीं का तफ़र्रूक़ा यक बार मिट गया
कल तुम गए के हम पे क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने 'असदुल्लह ख़ाँ" तुम्हें
वो वलवले कहाँ, वो जवानी किधर गई

गुलाम अली की आवाज मे सुने
Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

तलत महमूद की आवाज मे सुने
Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

1 comment:

vinaypande said...
This comment has been removed by a blog administrator.