Friday, November 30, 2007

ज़ुल्‌मत-कदे में मेरे शब-ए ग़म का जोश है

ज़ुल्‌मत-कदे में मेरे शब-ए ग़म का जोश है
इक शम`अ है दलील-ए सहर सो ख़मोश है

ने मुज़ह्‌दह-ए विसाल न नज़्‌ज़ारह-ए जमाल
मुद्‌दत हुई कि आश्‌ती-ए चश्‌म-ओ-गोश है

मै ने किया है हुस्‌न-ए ख़्‌वुद-आरा को बे-हिजाब
अय शौक़ हां इजाज़त-ए तस्‌लीम-ए होश है

गौहर को `उक़्‌द-ए गर्‌दन-ए ख़ूबां में देख्‌ना
क्‌या औज पर सितारह-ए गौहर-फ़रोश है

दीदार बादह हौस्‌लह साक़ी निगाह मस्‌त
बज़्‌म-ए ख़याल मै-कदह-ए बे-ख़रोश है

अय ताज़ह-वारिदान-ए बिसात-ए हवा-ए दिल
ज़िन्‌हार अगर तुम्‌हें हवस-ए नै-ओ-नोश है

देखो मुझे जो दीदह-ए `इब्‌रत-निगाह हो
मेरी सुनो जो गोश-ए नसीहत-नियोश है

साक़ी ब जल्‌वह दुश्‌मन-ए ईमान-ओ-आगही
मुत्‌रिब ब नग़्‌मह रह्‌ज़न-ए तम्‌कीन-ओ-होश है

या शब को देख्‌ते थे कि हर गोशह-ए बिसात
दामान-ए बाग़्‌बान-ओ-कफ़-ए गुल-फ़रोश है

लुत्‌फ़-ए ख़िराम-ए साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए सदा-ए चन्‌ग
यह जन्‌नत-ए निगाह वह फ़िर्‌दौस-ए गोश है

या सुब्‌ह-दम जो देखिये आ कर तो बज़्‌म में
ने वह सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है

दाग़-ए फ़िराक़-ए सुह्‌बत-ए शब की जलि हुई
इक शम`अ रह गई है सो वह भी ख़मोश है

आते हैं ग़ैब से यह मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए ख़ामह नवा-ए सरोश है

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