हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है, क्या कहिये
ये ज़िद्, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है, क्या कहिये
रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है, क्या कहिये
ज़िह-ए-करिश्म के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उंहें सब ख़बर है, क्या कहिये
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है, क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये
उंहें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है, क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है, क्या कहिये
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है, क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है, क्या कहिये
कहा है किसने कि "ग़ालिब" बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये
मोहम्मद रफी की आवाज मे सुने
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4 comments:
निशांत ग़ालिब को ब्लॉग में लाकर आपने बहुत अच्छा काम किया है. आप भी ग़ालिब के क़द्रदान हैं शुक्रिया.
गालिब को पढना अपने आप में सुखद अहसास है।
ग़ालिब साब का अंदाज़ ही निराला था ,उनको पढना अपने आप में गर्व की बात है |
ग़ालिब साब का अंदाज़ ही निराला था ,उनको पढना अपने आप में गर्व की बात है |
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