Tuesday, January 15, 2008

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं

1 comment:

Dinesh Karia said...

हरेक गज़ल के बाद उसके उर्दु शब्दों का हीन्दी अर्थ दें तो मज़ा ही कुछ और होता. हम जैसे लोग भी अच्छी तरह से सब समझ पायेंगे.

दिनेश कारीआ