Sunday, December 9, 2007

कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझसे

कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझसे
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझसे

ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है
कि जितना खेंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझसे

वो बद ख़ूँ और मेरी दास्तन-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझसे

उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवनी है
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझसे

सँभलने दे मुझे ए नाउमीदी, क्या क़यामत है
कि दामाने ख़्याले यार छूता जाये है मुझसे

तकल्लुफ़ बर तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझसे

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझसे

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझसे

जफ़ायें : Oppressions
जज़्‌ब : Drawing, attraction; allurement; absorption
जज़्‌बह : Passion, rage, fury; violent desire
इबारत : Speech; a word, an expression, a phrase
गुमान : Doubt, distrust, suspicion; surmise
नज़्‌ज़ारह : Sight, view, look, show; inspection
नज़्‌ज़ारगी : Seeing, looking at; sight; observation
मुद्‌द`ई: conniver/pretender

तलत महमूद की आवाज मे सुने
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2 comments:

Ashok Pande said...

भाई निशांत कुमार, अदभुत है आपका ब्लॉग। चचा के लिए ऐसा समर्पण प्रशंसनीय है। आप बने रहें।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

मिर्ज़ा गालिब की इसी उम्दा गज़ल को आशा भोंसले ने भी बहुत खूबसूरती से गाया है. मेरे पास वह गज़ल है, लेकिन मुझे वह तकनीक नहीं आती जिससे मैं भी उसे इसी तरह सबके लिए सुलभ करा सकूं. आशा ने इसे जयदेव जी के (या खय्याम साहब के) संगीत में गाया