Tuesday, December 11, 2007

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही

ख़ार-ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही

मय परस्ताँ ख़ूम-ए-मय मूंह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही

नफ़ज़-ए-क़ैस के है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम-ए-सियहख़ाना-ए-लैला न सही

एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक
नोह-ए-ग़म ही सही, नग़्मा-ए-शादी न सही

न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह्
गर नहीं है मेरे अशार में माने न सही

इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबाँ ही ग़नीमत समझो
न हुई "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबीई न सही

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