ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयां अप्ना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़्दां अप्ना
मै वह क्यूं बहुत पीते बज़्म-ए ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मन्ज़ूर उन को इम्तिहां अप्ना
मन्ज़र इक बुलन्दी पर और हम बना सक्ते
`अर्श से इधर होता काश-के मकां अप्ना
दे वह जिस क़दर ज़िल्लत हम हंसी में टालेंगे
बारे आश्ना निक्ला उन का पास्बां अप्ना
दर्द-ए दिल लिखूं कब तक जाऊं उन को दिख्ला दूं
उंग्लियां फ़िगार अप्नी ख़ामह ख़ूं-चकां अप्ना
घिस्ते घिस्ते मिट जाता आप ने `अबस बद्ला
नन्ग-ए सिज्दह से मेरे सन्ग-ए आस्तां अप्ना
ता करे न ग़म्माज़ी कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में हम ने हम-ज़बां अप्ना
हम कहां के दाना थे किस हुनर में यक्ता थे
बे-सबब हुआ ग़ालिब दुश्मन आस्मां अप्ना
अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
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अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
हम लोग जब मिले तो कोई दूसरा भी हो
तू जानता नहीं मेरी चाहत अजीब है
मुझको मना रहा हैं कभी ख़ुद खफ़ा भी हो
तू बेवफ़ा नही...
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