Monday, October 22, 2007

`अर्‌ज़-ए नियाज़-ए `इश्‌क़ के क़ाबिल नहीं रहा

`अर्‌ज़-ए नियाज़-ए `इश्‌क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पह नाज़ था मुझे वह दिल नहीं रहा

जाता हूं दाग़-ए हस्‌रत-ए हस्‌ती लिये हुए
हूं शम`अ-ए कुश्‌तह दर्‌ख़्‌वुर-ए मह्‌फ़िल नहीं रहा

मर्‌ने की ऐ दिल और ही तद्‌बीर कर कि मैं
शायान-ए दस्‌त-ओ-ख़न्‌जर-ए क़ातिल नहीं रहा

बर-रू-ए शश जिहत दर-ए आईनह बाज़ है
यां इम्‌तियाज़-ए नाक़िस-ओ-कामिल नहीं रहा

वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्‌द-ए नक़ाब-ए हुस्‌न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा

गो मैं रहा रहीन-ए सितम्‌हा-ए रोज़्‌गार
लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

दिल से हवा-ए किश्‌त-ए वफ़ा मिट गई कि वां
हासिल सिवा-ए हस्‌रत-ए हासिल नहीं रहा

बेदाद-ए `इश्‌क़ से नहीं डर्‌ता मगर असद
जिस दिल पह नाज़ था मुझे वह दिल नहीं रहा

No comments: