दोनों जहाँ देके वो समझे ये ख़ुश रहा
यां आ पड़ी ये शर्म की तकरार क्या करें
थक थक के हर मक़ाम पे दो चार रह गये
तेरा पता न पायें तो नाचार क्या करें
क्या शमा के नहीं है हवा ख़्वाह अहल-ए-बज़्म
हो ग़म ही जां गुदाज़ तो ग़मख़्वार क्या करें
हवा-ख़्वाह : Desirous of vanities; vain; ambitious;
अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
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अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
हम लोग जब मिले तो कोई दूसरा भी हो
तू जानता नहीं मेरी चाहत अजीब है
मुझको मना रहा हैं कभी ख़ुद खफ़ा भी हो
तू बेवफ़ा नही...
2 comments:
Dear Nishant !
You have done excellent job!
Remarkable!!
Really nice job done!
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