फिर इस अंदाज़ से बहार आई
के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई
देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक
इस को कहते हैं आलम-आराई
के ज़मीं हो गई है सर ता सर
रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई
सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई
सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई
है हवा में शराब की तासीर
बदानोशी है बाद पैमाई
क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"
शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई
अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
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अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
हम लोग जब मिले तो कोई दूसरा भी हो
तू जानता नहीं मेरी चाहत अजीब है
मुझको मना रहा हैं कभी ख़ुद खफ़ा भी हो
तू बेवफ़ा नही...
4 comments:
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया। बहुत शानदार काम कर रहे हैं आप। साधुवाद
I was searching something related to OSHO and reached at your blogs. You have great blogs. Thank you for maintaining such beautiful blogs.
गूगल से गालिब की शायरी ढूंढते हुए आया । बहुत शुक्रिया ।
Mazaa aa gya shriman
aap yu kary karte rahe ishwar se yahi prarthna hai
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